एगास : देवभूमि का दिव्य जागरण और सनातन लोक संस्कृति का उत्सव
लेखिका – आयशा आर्यन राणा, सह-संस्थापक, VRIGHT PATH
उत्तराखंड, जिसे श्रद्धा और आस्था से देवभूमि कहा जाता है, केवल हिमालयी प्रदेश नहीं बल्कि एक जीवित तीर्थ है — जहाँ देवता सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्यों के साथ निवास करते आए हैं। English
यह वह भूमि
है जहाँ हर
पत्थर, हर जलधारा,
और हर घाटी
में ईश्वरीय ऊर्जा
प्रवाहित होती है।
यहीं
से गंगा, यमुना, और
सरस्वती जैसी
पवित्र नदियाँ उद्गम
लेती हैं। यही
वह धरती है
जहाँ चार धाम — केदारनाथ में
भगवान शिव, बद्रीनाथ में
भगवान विष्णु, और
कणखल, हरिद्वार में
माता सती और
दक्ष प्रजापति का
पावन स्थल स्थित
है।
देवभूमि के पंच प्रयाग — विश्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, और देवप्रयाग — ईश्वर
और मानव चेतना
के मिलन का
प्रतीक हैं।
हरिद्वार और
ऋषिकेश मोक्ष
के द्वार हैं,
जबकि नीलकंठ महादेव, कोटेश्वर, त्रियुगी नारायण, और
नरसिंह मंदिर जैसे
तीर्थ आज भी
दिव्य आभा से
आलोकित हैं।
यहीं
भगवान गणेश का
जन्म हुआ, और
यहीं उन्होंने वेद व्यास के
साथ मिलकर महाभारत ग्रंथ की
रचना की।
अपने अंतिम दिनों
में पांडवों ने
भी इसी पवित्र
भूमि पर कदम
रखे और स्वर्गारोहण की
यात्रा आरंभ की।
उत्तराखंड वास्तव में धरती
और स्वर्ग के
बीच जीवंत पुल है
— जहाँ आस्था साँस
लेती है।
एगास – देवों के जागरण का पर्व
देवभूमि के
असंख्य धार्मिक और
सांस्कृतिक पर्वों में एगास (या इगास दीवाली) का स्थान
अत्यंत विशेष है।
दीपावली के 11वें दिन लोकपर्व इगास यानी बूढ़ी दीवाली मनाने
की परंपरा है।
यह पर्व देवउठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के साथ
आता है — वह
दिन जब भगवान विष्णु और समस्त देवगण अपने चार माह के योगनिद्रा (चातुर्मास) से जाग्रत
होते हैं।
इस
दिन सृष्टि में
फिर से ऊर्जा, प्रकाश और शुभता का
संचार होता है।
देवभूमि में इसे लोक
और देव – दोनों
के जागरण का
प्रतीक माना जाता
है।
लोक संस्कृति की झलक — बिना आतिशबाज़ी का पर्व
एगास
की सबसे बड़ी
विशेषता यह है कि
यह प्रकृति और लोक संस्कृति के सम्मान का पर्व है
— यहाँ आतिशबाज़ी नहीं होती, बल्कि
भक्ति, संगीत और नृत्य के
माध्यम से आनंद
व्यक्त किया जाता
है।
इस
दिन पारंपरिक पकवान
बनाए जाते हैं,
स्थानीय देवी-देवताओं की
पूजा होती है,
और रात को
ढोल-दमाऊं की थाप पर पारंपरिक भैलो नृत्य खेला
जाता है।
पहले यह पर्व
पहाड़ों में अत्यंत भव्यता
से मनाया जाता
था, लेकिन अब
पलायन के कारण शहरों
में बसे लोग
इस परंपरा को
आगे बढ़ा रहे
हैं। इसीलिए अब
शहरों में भी
इगास पर्व का उल्लास देखने
को मिलता है।
मवेशियों के प्रति आभार – समृद्धि का प्रतीक
इस
दिन मवेशियों को पौष्टिक आहार दिया
जाता है — भात और
झंगोरा का पींडू तैयार
किया जाता है।
उन्हें तिलक लगाकर और
फूलों की माला पहनाकर पूजा
जाता है। जब
मवेशी पींडू खा
लेते हैं, तो
उन्हें चराने वाले
या उनकी सेवा
करने वाले बच्चों को पुरस्कार दिया
जाता है।
यह पर्व केवल
देवताओं का ही नहीं,
बल्कि प्रकृति, पशु, और श्रम के प्रति कृतज्ञता का
भी प्रतीक है।
भैलो खेलने की परंपरा – आस्था और एकता की ज्योति
इगास की रात
भैलो खेलने की
परंपरा सदियों पुरानी है।
इस दिन गांव-गांव में
लोग चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बने
भैलो
तैयार करते हैं।
जहां चीड़ के
जंगल नहीं होते,
वहां देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी से भी
भैलो बनाया जाता
है। इन लकड़ियों
को रस्सी या जंगली बेलों से कसकर बांधा जाता है,
और रात में
इन्हें जला
कर गोल-गोल घुमाया जाता है।
ढोल-दमाऊं की
थाप, लोकगीतों की
धुन और भक्ति
से भरे स्वर
जब चारों ओर
गूंजते हैं, तो
पूरा वातावरण दिव्य
प्रकाश से भर
उठता है।
लेकिन
भैलो केवल आग
का खेल नहीं
— यह गहन आध्यात्मिक अर्थ समेटे हुए है।
ऐसा माना जाता
है कि भैलो
की यह ज्योति
पितरों
(पूर्वजों)
और नरक अथवा भटकती आत्माओं के लिए
प्रकाश का माध्यम
है, जिससे उन्हें
उजाला
और शांति मिलती है। यह
अग्नि उन आत्माओं
के मार्ग को
आलोकित करती है,
जो अंधकार में
भटक रही होती
हैं।
इस
प्रकार, भैलो
की लपटें केवल
लोक उल्लास नहीं,
बल्कि करुणा,
स्मरण और मोक्ष की प्रतीक
हैं।
जब ये जलते
हुए अग्नि-चक्र
हिमालय की रात
को रोशन करते
हैं, तो ऐसा
लगता है जैसे
मानव
और देवलोक के बीच संवाद स्थापित हो रहा
हो —
जहाँ अंधकार पर प्रकाश, बिछोह पर एकता, और अज्ञान पर आस्था की विजय होती है।
देवभूमि की आत्मा का उत्सव
एगास हमें
यह याद दिलाता
है कि देवभूमि में
आज भी देवता
हमारे बीच विद्यमान हैं।
यहाँ के पर्व
केवल रीति नहीं,
बल्कि प्रकृति, आस्था और सामूहिकता का उत्सव हैं।
जब
एगास की रात
को भैलो की
अग्नि लहराती है,
तो ऐसा प्रतीत
होता है जैसे
देवगण स्वयं आकाश से उतरकर अपनी
पवित्र भूमि को
पुनः आलोकित कर
रहे हों।
हर दीपक और
हर भैलो की
ज्वाला में एक
ही संदेश छिपा
है —
“जागरण केवल देवों का नहीं, मानव आत्मा का भी है।”
"एगास केवल जागरण का पर्व नहीं, यह देवभूमि की आत्मा का गीत है —
जहाँ देवता आज भी हमारे बीच निवास करते हैं, और हिमालय आज भी उनके स्वर से गूंजता है।
हम हाल ही में आई बाढ़, भूस्खलन और प्राकृतिक आपदाओं में अपने प्राण गंवाने वाले दिवंगत आत्माओं को भी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। भैलो की ज्योति उन आत्माओं तक उजाला पहुँचाने का प्रतीक है — जो इस लोक से विदा होकर भी हमारी स्मृतियों और आशीर्वाद में जीवित हैं।
समस्त प्रदेश -व-देश वासियों को हमारी समृद्ध संस्कृति के प्रतीक लोक पर्व इगास बग्वाल (बूढ़ी दिवाली) की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान को संजोए रखने वाला यह पर्व हमें अपनी जड़ों व परंपराओं से जुड़ने का संदेश देता है। यह पावन पर्व आप सभी के जीवन में सुख-समृद्धि एवं आरोग्यता का संचार करे, यही कामना है"
— आयशा आर्यन राणा, सह-संस्थापक, VRIGHT PATH


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